शनिवार, 6 जनवरी 2018

   हम सुख़न फ़हम है ग़ालिब के तरफ़दार नहीं ।




मिर्ज़ा ग़ालिब एक मात्र ऐसे शायर है जिन पर सबसे अधिक लिखा और पढ़ा गया है ,या समलोचनाये और अनुवाद प्रकाशित किये गए है । उर्दू दुनिया मे ये किसी और शायर को नसीब नही हुआ है। ग़ालिब को सभी ने सर्वसम्मति से सर्व श्रेष्ट माना है ।ग़ालिब के जीवन या उनकी शायरी के हर पहलू पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है ।आज यहां सिर्फ उनको याद करके ही खिराज-ए-अक़ीदत दी जा सकती है ।किसी ने आज मुझसे बड़े सामान्य ढंग से पूछा कि अगर आज ग़ालिब ज़िंदा होते तो क्या होता ,तो दो बातें तुरंत ही मेरे दिमाग मे कौंध गई अव्वल तो ग़ालिब साहब का ही शेर था,

ना था कुछ तो खुदा था कुछ ना होता तो खुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने ना होता में तो क्या होता ।


 दोयम ये कि आज के दौर में उनका दम घूँट गया होता ।लोग उन्हें बला का मगरूर शख़्स समझ कर तिरस्कार कर देते ,और ना जाने क्या क्या होता ।आज जब हर तरफ चाटुकारिता है बेहयाई है दो कौड़ियो के लिए अपने ज़मीर का सौदा करके तमाम नीचताई को प्राप्त किया का रहा है वहाँ ग़ालिब का जीना दूभर हो जाता । ग़ालिब का जीवन आर्थिक तंगी और उसकी चिंताओं में गुज़र गया लेकिन फिर भी उन्होंने अपने स्वाभिमान पर बाल नही आने दिया और तमाम उम्र अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखा । बकौल ग़ालिब ----


बंदगी में भी वो आज़ाद ओ खुदबीं है कि हम,
उल्टे फिर आये दरे-काबां अगर वां ना हुआ ।।         

 ग़ालिब का ये शेर आज के दौर में पढ़ा जाना भी कुछ लोगो को नागवार गुज़र सकता है लेकिन  ग़ालिब के लिए ये मात्र स्वाभिमान का प्रश्न है । ग़ालिब काबे के दरवाजे से वापस फिर आये महज इसलिए कि वहाँ का दरवाजा खुला हुआ नही था । ऐसे कई किस्से है जिससे ग़ालिब के खुद्दारी को समझा जा सकता है । एक बार दिल्ली कालेज में, फ़ारसी के प्रोफेसर की आवश्यकता आन पड़ी ,लोगो ने और ग़ालिब के दोस्तो ने ग़ालिब का नाम सुझाया क्यों कि वे ग़ालिब के आर्थिक तंगी से वाकिफ भी थे और उनकी अज़ीम शख़्सियत से भी । बुलाये जाने पर ग़ालिब पालकी में सवार होकर कालेज गए और वहाँ इतला करके सेकेट्री साहब का इतंज़ार करने लगे कि वो आकर बदस्तूर इन्हें अंदर ले जाएंगे, सेकेट्री साहब को मालूम हुआ कि इस वजह से नही आये तो वो खुद बाहर गए और फरमाया कि हुज़ूर आज आप  नौकरी के लिए आये है और ऐसे मौके पर मैं आपको कैसे लेने आ सकता हूं ,तो ग़ालिब ने फरमाया की सरकारी नौकरी करने का इरादा मैने इस लिए किया था कि मेरी इज़्ज़त में और इजाफा हो ना कि मौजूदा इज़्ज़त में कमी हो जाये ,मुझे इस खिदमत  से मुआफ़ किया जाए, और उल्टे फिर आये ।           

   

 ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान *ग़ालिब* ,
तुझे हम वली समझते ,जो ना बादाख़्वार होता ।

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