सोमवार, 20 अगस्त 2018

ग़ज़ल, रंज, ग़म,सितम,हौसला सनम

ये किसने कहा रंजो-अलम बेच रह हूँ,
शरबत बना के ज़हर-सितम बेच रहा हूँ।

परवाह नहीं जिसको रिश्तों की,वफ़ा की,
उस शख़्स को अहदो-क़सम बेच रहा हूँ ।

कहते है मुहब्बत को सभी नेमते-हस्ती,
तारीख़ में जो कुछ है रकम बेच रहा हूँ ।

ख़ुश्बू से मुअत्तर है ये फुलों से बना है,
ज़ख़्मो के लिए मरहमे-ग़म बेच रहा हूँ ।

 है हौसला तो मुझसे करे रब्त बेज़ुबान,
तलवार से भी तेज़ कलम बेच रहा हूँ ।

अहले-हरम की खैर मनाता हूँ मैं "सुमीत"
इस शहर में पत्थर के सनम बेच रहा हूँ ।

ग़ज़ल, गुलशन, सावन,तमस,

न गुलशन में राहत, न राहत क़फ़स में,
सुलगती है कलियां,दहक ख़ारो-खस में ।

हर एक सिम्त गूँजी ये झंकार कैसी,
ये गत किसने झेड़ी है साज़े-नफ़स में ।

इसी कशमकश में गुज़र गयी जवानी,
न दिल आया काबू न वो आये बस में ।

न बिजली चमकी न वो डर के लिपटे,
न बरसा ही सावन अबके बरस में ।

दिया हो,कि चन्दा हो ,कि या हो सितारा,
"सुमित" कुछ उजाला तो हो इस तमस में।