रविवार, 16 अक्तूबर 2011

जगजीत सिंह

इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे, मसीहा हो नहीं सकता

जगजीत अंकल का अचानक चला जाना एक ग़लत फैसला था, यक़ीनन ये फैसला उनका न था और न हमारा था, ये फैसला तो उसका था जिसके सामने किसी की नहीं चलती इसलिए इस तानाशाही फरमान को मानने के अलावा कोई चारा भी नहीं था,
लेकिन ये भी तो पता है कि ये सही वक़्त नहीं था उनके जाने का, वैसे भी ये फैसला कोई नया और आखरी फैसला नहीं था
उसका....उसने इससे पहले भी कई अनचाहे फैसलों को हम पर धोपा था तो इस बार भी दर्द तो हुआ पर ये दर्द नया नहीं था जाना पहचाना दर्द था, अब तो बस उनकी यादें है और उनकी ग़ज़लें है, जब ये सब तमाम खबरें आ रही थी तब उस वक़्त मैं, मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम, सुन रहा था पर अब नहीं सुन पाता,अब इस ग़ज़ल को जीता हूँ मैं...

मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम,
इक-दूसरे की याद में रोया करेंगे हम.

आंसू छलक-छलक के सतायेंगे रात भर,
मोती पलक-पलक में पिरोया करेंगे हम.

जब दूरियों की आग दिलो को जलाएगी,
जिस्मों को चांदनी में भिगोया करेंगे हम.

भोपाल में मैंने जगजीत अंकल के 3 प्रोग्राम देखें हैं। वहां मेरी और उनकी मुलाकात बड़ी हसीन रही। एक बार तो होटल नूरे-सबाँ के लॉबी में जगजीत अंकल के साथ काफी वक्त गुजरने का मौका मिला था,भोपाल के शायर डा.बशीर बद्र भी मौजूद थे। हमने काफी बातें की और साथ में तस्वीरे भी लीं। जगजीत अंकल ने हमसे कैमरा लिया और डा बशीर बद्र जी की तस्वीर लेने लगे।ये मंजर आफताबों-महताब का एक साथ होने जैसा था,जो मुझसे तो भुलाया न जाएगा। भोपाल का ही वाकया मुझे याद आता है पुराने भोपाल में अपने एक परिचित के घर गया था,जहां अपने से बहुत बड़े लोगों की सोहबत में कुछ शेर-ओ-सुखन की चर्चाएं होती रहती थी। यहां एक साहब बैठे थे जो पंकज उधास साहब मुरीद थे उन्होंने पंकज जी की तारीफ के पुल बांधने शुरू कर दिए और पुल बांधते-बांधते उनकी और जगजीत जी की तुलना करने लगे,उनके मुखातिब अब मै भी था मै जगजीत जी का मददाह हूँ तो चुपचाप सारी बातें कैसे सुन सकता था। मैने कहा जनाब मै पंकज उघास और जगजीत सिंह में वही फर्क देखता हूं जो फर्क जफर गोरखपूरी और रघुपति सहाय फिराक गोरखपूरी में है। सब वाह-वाह के साथ खूब हंसने लगे,जनाब का मुंह इतना सा रह गया था। दरअसल जगजीत जी ने ऊर्दू शायरी के प्रारंभिक युग के शायरो से लेकर आज के युवा शायरों तक की गजलों को आवाज दी है। दरअसल गजल की अगर कोई आवाज़ होती है तो वो आवाज जगजीत सिंह थे,जो उनके साथ ही मर गई। जगजीत सिंह ने गजल को एक दयार बख्शा है,इसलिए नहीं कि उन्होंने गजल को आम-ओ-खास तक पहुंचाया बल्कि गजल को उसकी पूरी नजाकत और उसके क्लासिकल और मकसूद अंदाज के साथ लोगों तक पहुंचाया। साथ ही उन्होंने गजल गायकी को नए साज और नया अंदाज दिया,जिसमें परम्परागत साजों के साथ नए साज और नई डिजिटल तकनीक का भी कामयाब इस्तेमाल किया,जिससे दीगर ग़ज़ल गायक अछूते ही रहे है.
उन्होंने अच्छे गजलों को ही इंतिखाब किया। चाहे वो बड़े शायर की हो या छोटे और नए शायर की हो। गजलें मीटर में होती है,जिस को बहर कहा जाता है जो एक गजल के लिए बेहद जरूरी है जैसे रदीफ और काफिए जरूरी होते हैं। इनका भी जगजीत जी ने हमेशा ख्याल रखा,जिससे उनकी मौशिकी का स्तर हमेशा बना रहा। किसी जमाने में उन्होंने टीवी सीरियल मिर्जा गालिब में अपनी आवाज दी थी,जो यकीनन गालिब के रूह तक पहुंची। उस वक्त वो आवाज मेरी रूह में भी उतर गई थी,जगजीत सिंह को सुनना शुरू किया और आज तक सुनता आ रहा हूं,पर अब शायद उनकी आवाज ही गुंजेगी। उनसे मेरी सबसे पहली मुलाकात एक दशक पहले 29-12-1999 को भोपाल में हुई थी,वहां उनका प्रोग्राम था। घर से सबको नाराज करके अकेले ही चला गया था। नूर-ए-सबाँ पांच सितारा हाटल में सुबह दम उनसे मिलकर मैने अपनी बेकरारी को कम करना चाहा था,पर उनसे मिलकर बिछडऩे पर और बेकरार हो गया था। फिर अकसर उनके प्रोग्राम में जाने लगा। मैने भोपाल,नागपुर,रायपुर,बिलासपुर में उनके प्रोग्राम देखे हैं। हाल ही में 1 सितंबर को रायगढ़ में उनका प्रोग्राम था। प्रोग्राम तो अच्छा था पर मुझे क्या पता था वो हम सबका आखिरी प्रोग्राम हो जाएगा। मुझे इस बात पर बेहद बेकरारी है कि मै रायगढ़ में उनसे नहीं मिल पाया और यहीं बेकरारी अब उम्र भर कि बेकरारी हो जाएगी। वो बहुत जिंदादिल इंसान थे। सोंचता था कभी मुंबई जाके इत्मिनान से मुलाकात करूंगा क्या पता था यह हसरत दिल की दिल में रह जाएंगी,जिसकी कब्रगाह अब मेरा दिलो-दिमाग हो जाएगा। मुझे इस बात का भी दुख है कि रायगढ़ में उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। उनकि गजलें,उनकी यादें हमेशा साथ रहेंगी,उन्हें भुला पाना मुमकिन नहीं।

हमको याद आती है बातें उसकी,
दिन को रोजगार और रातें उसकी.
क्या आजाद ओ खुदबी था वो,
अपना खुदा आप ही था वो.....

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