न गुलशन में राहत, न राहत क़फ़स में,
सुलगती है कलियां,दहक ख़ारो-खस में ।
हर एक सिम्त गूँजी ये झंकार कैसी,
ये गत किसने झेड़ी है साज़े-नफ़स में ।
इसी कशमकश में गुज़र गयी जवानी,
न दिल आया काबू न वो आये बस में ।
न बिजली चमकी न वो डर के लिपटे,
न बरसा ही सावन अबके बरस में ।
दिया हो,कि चन्दा हो ,कि या हो सितारा,
"सुमित" कुछ उजाला तो हो इस तमस में।
सुलगती है कलियां,दहक ख़ारो-खस में ।
हर एक सिम्त गूँजी ये झंकार कैसी,
ये गत किसने झेड़ी है साज़े-नफ़स में ।
इसी कशमकश में गुज़र गयी जवानी,
न दिल आया काबू न वो आये बस में ।
न बिजली चमकी न वो डर के लिपटे,
न बरसा ही सावन अबके बरस में ।
दिया हो,कि चन्दा हो ,कि या हो सितारा,
"सुमित" कुछ उजाला तो हो इस तमस में।
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