दाग़ दहलवी
जयंती विशेष
ब'अद मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आया,
वही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का।
उम्र के आखिर में ग़ालिब का ये ख्याल था कि देहली वालो को उसी उर्दू ज़बान में अशआर कहना चाहिए जो उर्दू वो बोलते है,किसी ने ग़ालिब से पूछा कि और हज़रत दाग़ की उर्दू कैसी है? ग़ालिब ने फ़रमाया कि ऐसी उम्दा है कि किसी की क्या होगी, जौक़ ने अगर उर्दू को पाला है तो दाग़ ने उसे तालीम दी ।
नवाब मिर्ज़ा दाग़ दहलवी ऐसे शायर जो अपने वक़्त में उस ख्याति और शोहरत को हासिल कर चुके थे जो एक शायर को मिलनी चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि दाग़ उस युग में भी ज़िंदा रहे जो दाग़ युग था । कोई मुशायरा ख़त्म होता और जब लोग मुशायरे से बाहर जाते तो दाग़ का शेर पढ़ते पढ़ते जाते थे। इस बात को हर कदीम शायर ने माना है ।
नवाब मिर्ज़ा खान दाग़ देहलवी अपने अहद के सबसे मारूफ शायर थे , उनके कलाम में सादगी के साथ साथ शोखी ,और रवानी कूट-कूट कर भरी है दाग की शायरी इश्क़ो-आशिकी की शायरी है दाग का इश्क बाजारी है जब वे युवा हुए तब से मुगलों की शोखियां ,शहजादियों की अठखेलियां ,और शहजादों की रंगरेलियां देखते रहे । एक तो उनका मिजाज रंगीन ऊपर से नाच गाने ,मौशिक़ी ,दौरे शराब, इन्हीं सब के बीच वह जवान हुए। किले की टकसाली रसीली उर्दू जबान और इब्राहिम ज़ौक़ जैसा उस्ताद शायर फिर क्या था दाग अब पूरे दाग हो गए थे ।रंगीन आशिक मिजाज उनके कलाम को सीने से लगाए फिरते थे दाग़ ने अपना रंग अख्तियार कर लिया था और वह रंग कभी भी किसी को हासिल ना हो सका। दाग़ के कलाम में जबान और बयान का जो लुत्फ है वो देखते ही बनता है कैसे छोटी सी छोटी,बड़ी से बड़ी बात को आसान जबान से कह देते,मुहावरात का गज़ब का इस्तेमाल मौजूं को और भी निखार देता । दाग की शायरी जबान और बयान के लिहाज़ से बेहतर से बेहतर है ।
नवाब मिर्ज़ा दाग़ दहलवी का जन्म 25 मई 1931 में दिल्ली के चांदनी चौक में हुआ किले में शाही रीति-रिवाज से उनकी शिक्षा दीक्षा हुई दाग के चार दीवान मिलते हैं और उनके शागिर्दों की एक लंबी फेहरिस्त है ।
सुमित शर्मा
दाग़ के शेरों के चंद नमूने
खातिर से या लिहाज़ से मान तो गया,
झूठी कसम से आपका यह मान तो गया।
दिल में समा गई है कयामत की शोखियां
दो-चार दिन रहा था किसी की निगाह में।
हमने उनके सामने अव्वल तो खंजर रख दिया,
फिर कलेजा रख दिया,दिल रख दिया,सर रख दिया।
वह नहीं सुनते हमारी क्या करें ,
मांगते हैं हम दुआ जिन के लिए।
गजब किया तेरे वादे पर ऐतबार किया ,
तमाम रात क़यामत का इंतजार किया।
आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता ।
जयंती विशेष
ब'अद मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आया,
वही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का।
उम्र के आखिर में ग़ालिब का ये ख्याल था कि देहली वालो को उसी उर्दू ज़बान में अशआर कहना चाहिए जो उर्दू वो बोलते है,किसी ने ग़ालिब से पूछा कि और हज़रत दाग़ की उर्दू कैसी है? ग़ालिब ने फ़रमाया कि ऐसी उम्दा है कि किसी की क्या होगी, जौक़ ने अगर उर्दू को पाला है तो दाग़ ने उसे तालीम दी ।
नवाब मिर्ज़ा दाग़ दहलवी ऐसे शायर जो अपने वक़्त में उस ख्याति और शोहरत को हासिल कर चुके थे जो एक शायर को मिलनी चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि दाग़ उस युग में भी ज़िंदा रहे जो दाग़ युग था । कोई मुशायरा ख़त्म होता और जब लोग मुशायरे से बाहर जाते तो दाग़ का शेर पढ़ते पढ़ते जाते थे। इस बात को हर कदीम शायर ने माना है ।
नवाब मिर्ज़ा खान दाग़ देहलवी अपने अहद के सबसे मारूफ शायर थे , उनके कलाम में सादगी के साथ साथ शोखी ,और रवानी कूट-कूट कर भरी है दाग की शायरी इश्क़ो-आशिकी की शायरी है दाग का इश्क बाजारी है जब वे युवा हुए तब से मुगलों की शोखियां ,शहजादियों की अठखेलियां ,और शहजादों की रंगरेलियां देखते रहे । एक तो उनका मिजाज रंगीन ऊपर से नाच गाने ,मौशिक़ी ,दौरे शराब, इन्हीं सब के बीच वह जवान हुए। किले की टकसाली रसीली उर्दू जबान और इब्राहिम ज़ौक़ जैसा उस्ताद शायर फिर क्या था दाग अब पूरे दाग हो गए थे ।रंगीन आशिक मिजाज उनके कलाम को सीने से लगाए फिरते थे दाग़ ने अपना रंग अख्तियार कर लिया था और वह रंग कभी भी किसी को हासिल ना हो सका। दाग़ के कलाम में जबान और बयान का जो लुत्फ है वो देखते ही बनता है कैसे छोटी सी छोटी,बड़ी से बड़ी बात को आसान जबान से कह देते,मुहावरात का गज़ब का इस्तेमाल मौजूं को और भी निखार देता । दाग की शायरी जबान और बयान के लिहाज़ से बेहतर से बेहतर है ।
नवाब मिर्ज़ा दाग़ दहलवी का जन्म 25 मई 1931 में दिल्ली के चांदनी चौक में हुआ किले में शाही रीति-रिवाज से उनकी शिक्षा दीक्षा हुई दाग के चार दीवान मिलते हैं और उनके शागिर्दों की एक लंबी फेहरिस्त है ।
सुमित शर्मा
दाग़ के शेरों के चंद नमूने
खातिर से या लिहाज़ से मान तो गया,
झूठी कसम से आपका यह मान तो गया।
दिल में समा गई है कयामत की शोखियां
दो-चार दिन रहा था किसी की निगाह में।
हमने उनके सामने अव्वल तो खंजर रख दिया,
फिर कलेजा रख दिया,दिल रख दिया,सर रख दिया।
वह नहीं सुनते हमारी क्या करें ,
मांगते हैं हम दुआ जिन के लिए।
गजब किया तेरे वादे पर ऐतबार किया ,
तमाम रात क़यामत का इंतजार किया।
आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता ।